दिल्ली : शादीपुर की संकरी गलियों को पार करते हुए मैं चौथी मंजिल पर, उस कमरे में दाखिल हुआ, जहां सामान से ज्यादा मेडल और ट्रॉफियां नजर आती हैं. इसे कमरा भी क्या कहें, 4×8 की एक छोटी सी जगह है. राहुल अपने मेडल समेटते हुए कहते हैं- ‘बारिश आती है तो पानी भर जाता है। गर्मी में पूरा कमरा भट्टी की तरह तपता है, रह पाना भी मुश्किल होता है.’
राहुल अपनी मजबूरियों को एक फीकी मुस्कुराहट से छुपाने की कोशिश करते हैं, लेकिन देश में एथलीट्स की बार-बार दोहराई गई एक कहानी को बयान कर देते हैं. 25 साल के राहुल एथलीट हैं.
ओलिंपिक में मेडल क्यों नहीं आते? इतना बड़ा देश है, फिर भी इतने कम मेडल. इस तरह के सवाल आपने सुने होंगे, पूछे भी होंगे. ओलिंपिक या कॉमनवेल्थ गेम्स के आसपास इस तरह के सवालों-चर्चाओं की बाढ़ आ जाती है. राहुल की कहानी ही इन सवालों का जवाब है.
वहीं, नेशनल खेल चुके एथलीट की, जो हार नहीं रहा. प्रैक्टिस नहीं छोड़ रहा, गेम को नई ऊंचाई पर ले जाना चाहता है, लेकिन हालात ऐसे हैं कि वो कब तक टिक पाएगा कोई नहीं जानता.
मेरा नाम राहुल है और मैं 25 साल का हूं. नेशनल लेवल एथलीट हूं और 10 KM की रेस भागता हूं. दूसरे एथलीट्स की तरह मेरी जिंदगी में रनिंग-रेस्ट-रनिंग नहीं है. रात को 10 बजे से 6 बजे तक दिल्ली में दूध की क्रेट लोडिंग का काम करता हूं.’
हालांकि ‘रात भर, रोजाना मुझे करीब 1200 क्रेट लोड करनी होती हैं. सुबह 7 बजे तक घर आता हूं और एक घंटा रेस्ट करके ग्राउंड जाकर पंचिंग और एक्सरसाइज करता हूं. 10 बजे घर लौटता हूं और 3-4 घंटे की नींद लेता हूं. इसके बाद 2-3 बजे फिर ग्राउंड पर जाने का समय हो जाता है. पिछले करीब 10 वर्ष से मेरी जिंदगी में रात की नींद ही नहीं है.’
मेरी लंबाई सिर्फ 5 फीट है, फौज में नहीं जा सकता. जिंदगी में मैं देश के लिए कुछ अच्छा करना चाहता हूं. मैं इंडियन एथलीट हूं, चाहता हूं कि मेरे कंधे पर भारत का तिरंगा फहराए. मैं दुनिया में देश का नाम ऊंचा करूं.
4 वर्ष की उम्र में पिता गुजर गए, भाई के घर में ताने मिले तो छोड़ दिया…
मैंने जिंदगी भर संघर्ष ही किया है. सिर्फ 4-5 वर्ष का था, तो पिता नहीं रहे. दिल्ली में ही पटेल नगर में बड़े भाई के पास आ गया. पास के ही सरकारी स्कूल में एडमिशन हो गया.
किसी तरह उनके यहां रहकर 9वीं तक पढ़ाई की. भाई के घर में इतने ताने मिलने लगे कि जीना मुश्किल हो गया था. एक दिन परेशान होकर घर छोड़ दिया. भाइयों की शादी हो गई थी, वो कहते थे कि हम अपने बच्चे पालें कि तुम्हें पालें. अगर मेरे पिता जिंदा होते तो शायद ये दिन ना देखने पड़ते.
जो कपड़े पहने थे और एक स्कूल बैग के साथ घर छोड़ दिया था. मैं बंगला साहिब गुरुद्वारे पहुंचा. कई महीने गुरुद्वारे में ही रहा. मैं वहीं सोता था, स्कूल जाता था और गुरुद्वारे में सेवा करता था. कुछ महीनों में समझ आ गया कि ऐसे ज्यादा दिन नहीं चलेगा.
फिर मैंने एक दोस्त को कहा कि कुछ काम दिला दो. दोस्त के पिता ने मुझे दिल्ली मिल्क स्कीम में नौकरी दिला दी. काम था कि कोल्ड स्टोरेज से दूध की ट्रे को ट्रकों में लोड और अनलोड करना. सैलरी सिर्फ 4 हजार रुपए. 1,500 रुपए मकान का किराया. रात-भर कमरतोड़ काम करता. दिन में स्कूल जाता. स्कूल में मिड-डे मील था, तो खाने का इंतजाम हो जाता था.
‘रात भर काम करने की वजह से दिन में स्कूल में नींद आ जाती थी. स्कूल में स्पोर्ट्स में पहली बार मैंने अच्छा परफॉर्म किया. क्रिकेट, वॉलीबॉल, रनिंग में मेरे अच्छे मेडल आने लगे.’
मकान मालिक का बेटा स्टेडियम ले गया और अब यही मेरी जिंदगी है
अपनी नाइट जॉब की बदौलत एक कमरा किराए पर ले लिया था. मकान मालिक का लड़का दिल्ली पुलिस की भर्ती की तैयारी कर रहा था. दौड़ लगाने स्टेडियम जाता था. उसने एक दिन मुझसे कहा- ‘घर पर क्या बैठा रहता है, चल स्टेडियम चला कर. उधर चलियो, अच्छा लगेगा.
‘मैं चला गया, उसने ही रनिंग करने के लिए कहा. मेरे पास न जूते थे, ना रनिंग के लिए पहनने वाले कपड़े. शुरुआत में मैंने ट्रैक के 2-4 चक्कर मारने शुरू किए. फिर किसी ने मुझे जूते दिला दिए और वहां से मेरी रनिंग का सफर शुरू हो गया.’
‘मैंने 2015 से प्रोफेशनल रनिंग शुरू की, 2016 में दिल्ली स्टेट में ब्रॉन्ज मेडल जीत लिया. इसके बाद 2017 नेशनल में अंडर-20 क्रॉस कंट्री में ब्रॉन्ज मेडल भी जीता. मुझे रनिंग पसंद आने लगी. मुझे अगर रात में काम न करना पड़े, आराम करने को मिले तो मैं और अच्छा परफॉर्म कर सकता हूं. मेरी जिंदगी से नाइट रेस्ट ही गायब है. पूरी रात काम करने के बाद सुबह अगर कोई दौड़ने जाएगा, तो वो अपना 50% एफर्ट भी नहीं लगा पाता है.’
स्टेडियम में ही राजकुमार नाम के एक सीनियर मिले, उन्होंने मुझे रनिंग की ट्रेनिंग दी. दिल्ली यूनिवर्सिटी के अलग-अलग ग्राउंड में रेगुलर ट्रेनिंग करने लगा.
दिल्ली यूनिवर्सिटी के टॉप कॉलेज रामजस में स्पोर्ट्स कोटे से एडमिशन हो गया. प्रैक्टिस अच्छी हुई तो दिल्ली स्टेट इंटर जोन में सिल्वर मेडल भी मिल गया. फिर मैंने नेशनल का सफर तय किया. इसी दौरान दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में पहली बार ट्रैक पर दौड़ने की ट्रेनिंग शुरू हुई.। 2017 में नेशनल में मेरा क्रॉस कंट्री 8 किमी में ब्रॉन्ज मेडल आया.’
पढ़ाई करना तो हमेशा से ही मुश्किल था. मैं 11वीं में था. अगले दिन एग्जाम था, लेकिन काम से छुट्टी नहीं मिली. रात भर काम किया तो सुबह नींद नहीं खुली और पेपर मिस हो गया. मुझे 11वीं क्लास दोबारा पढ़नी पड़ी. मैंने सोचा जब ठान लिया है, तो मैं 12वीं तक तो पढ़ाई करूंगा ही. किसी तरह 12वीं हुई.’
फिर रामजस कॉलेज में एडमिशन हुआ. वहां सारे स्टूडेंट 90-95% वाले थे. ज्यादातर पैसे वाले घर के लड़के-लड़कियां थे. मैं रातभर काम करता, सुबह 7 बजे काम खत्म करके 8 बजे क्लास पहुंचता. मुझे नींद आती थी, तो मेरा मजाक बनता था. कुछ महीने ऐसा चला, लेकिन अटेंडेंस कम थी और मेरे लिए कॉलेज जारी रखना मुश्किल हो गया, मैंने कॉलेज बीच में ही छोड़ दिया. इसलिए सिर्फ 12वीं तक ही पढ़ पाया.’
कोल्ड स्टोर में दूध की क्रेटें चढ़ाना बहुत खतरनाक काम है. बर्फीली ठंड के बीच 100 किलो से ज्यादा की ट्रेज को ठेले पर चढ़ाना और फिर उसे ट्रक में लोड करने से हड्डियां अकड़ जाती हैं. मेरे माथे पर देखिए, कितने सारे कट लगे हुए हैं. एक बार मेरे सिर पर इतनी जोर से चोट लगी कि लगा आज नहीं बचूंगा. मुझे अस्पताल में जाकर होश आया. मेरे सिर के आसपास कई सारे टांके के निशान हैं.
मैं इंटरनेशनल लेवल का एथलीट बन सकता हूं. बस मुझे जरूरत है नाइट रेस्ट की. अगर मुझे रात में ठीक से नींद मिलने लगती है तो मेरी रनिंग 2-3 गुना तक इम्प्रूव हो सकती है. मेरे कोच और साथी भी यही कहते हैं.
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